जन्म दिन
भारतीय कार्टून कॉमिक जगत के ‘सरपंच’ कार्टूनिस्ट प्राण
जन्म १५ अगस्त, १९३८
‘कार्टून न्यूज़ हिन्दी’ की ओर से कार्टूनिस्ट प्राण को बहुत-बहुत बधाई!
प्राण |
भारतीय कॉमिक जगत के सबसे सफल और लोकप्रिय रचयिता कार्टूनिस्ट प्राण ने सन १९६० से कार्टून बनाने की शुरुआत की। उनके रचे अधिकांश पात्र लोकप्रिय हैं पर प्राण को सर्वाधिक लोकप्रिय उनके पात्र चाचा चौधरी और साबू ने ही बनाया।
अमरीका के इण्टरनेशनल म्यूज़ियम ऑफ़ कार्टून आर्ट में उनकी बनाई कार्टून स्ट्रिप ‘चाचा चौधरी’ को स्थाई रूप से रखा गया है। सन १९८३ में देश की एकता को लेकर उनके द्वारा बनाई गयी कॉमिक ‘रमन- हम एक हैं’ का विमोचन तत्कालीन प्रधान मन्त्री स्व. इन्दिरा गांधी ने किया था।
एक जमाने में काफ़ी लोकप्रिय रही पत्रिका लोटपोट के लिए बनाये उनके कई कार्टून पात्र काफ़ी लोकप्रिय हुए। बाद में कार्टूनिस्ट प्राण ने चाचा चौधरी और साबू को केन्द्र में रखकर स्वतंत्र कॉमिक पत्रिकाएं भी प्रकाशित कीं। बड़े से बड़ा अपराधी या छोटा-मोटा गुन्डा-बदमाश या जेब कतरा, कुत्ते के साथ घूमने वाले लाल पगड़ी वाले बूढ़े को कौन नहीं जानता! यह सफ़ेद मूंछों वाला बूढ़ा आदमी चाचा चौधरी है। उसकी लाल पगड़ी भारतीयता की पहचान है। कभी-कभी पगड़ी बदमाशों को पकड़ने के काम भी आती है।
कहते हैं कि चाचा चौधरी का दिमाग कम्प्यूटर से भी तेज चलता है। सो अपने तेज दिमाग की सहायता से चाचा चौधरी बड़े से बड़े अपराधियों को भी धूल चटाने में माहिर हैं। चाचा चौधरी की रचना चाणक्य के आधार की गयी है जो बहुत बुद्धिमान व्यक्ति थे। यह १९६० की बात है। दरअसल वे पश्चिम के लोकप्रिय पात्रों सुपरमैन, बैटमैन, स्पाइडरमैन आदि से अलग हटकर भारतीय छाप वाले पात्रों की रचना करना चाहते थे जो दिखने में सामान्य इन्सान दिखें। इसीलिए काफ़ी सोचविचार के बाद उन्होने सामान्य से दिखने वाले गंजे, छोटे कद के, बूढ़े चाचा चौधरी को बनाया, जिसका दिमाग बहुत तेज था। वह अपने दिमाग से हर समस्या का हल कर देता है। चाचा चौधरी स्वयं शक्तिशाली नहीं पर जुपिटर ग्रह से आया साबू अपनी असाधारण शारीरिक क्षमता से चाचा चौधरी पर्छाईं की तरह उनके साथ रहकर यह कमी पूरी कर देता है। इस तरह साबू और चाचा चौधरी मिल कर अपराधियों को पकड़वा देते है।
चीकू नामक बुद्धिमान खरगोश का कॉमिक बच्चों की पत्रिका चम्पक में बरसों छपा। किसी वजह से सन १९८० में चम्पक से अलग होने पर चीकू के कारनामे बदल गये। बाद में यह २ पृष्ठीय चित्रकथा चीकू दास (एक सरकारी चित्रकार) ने बनायी। इसी तरह कुछ अन्य पात्रों के साथ भी हुआ। विभिन्न हिन्दी व अन्य भाषाओं के समाचार पत्र-पत्रिकाओं में उनके अनेक पात्र धूम मचाते रहे हैं। उनके रचे बिल्लू, पिन्की, तोषी, गब्दू, बजरंगी पहलवान, छक्कन, जोजी, ताऊजी, गोबर गणेश, चम्पू, भीखू, शान्तू आदि तमाम पात्र जनमानस में सालों से बसे हुए हैं।
चाचा चौधरी की कॉमिक्स हिन्दी, अंग्रेजी के अलावा अन्य भारतीय भाषाओ मे भी प्रकाशित की होती है। हास्य और रोमांच से भरे ये कॉमिक बच्चों और बड़ों का भरपूर मनोरंजन करते है। दर्शकों का चाचा चौधरी के टीवी सीरियल ने भी पर्याप्त मनोरंजन किया। कार्टूनिस्ट प्राण एनिमेशन फिल्म भी बना रहे है।
सचमुच भारतीय कार्टून कॉमिक जगत के ‘सरपंच’ कार्टूनिस्ट प्राण ही हैं।
• टी.सी. चन्दर
कवि -कार्टूनिस्ट प्राण के रेखांकन
कंप्यूटर से भी तेज दिमाग वाले 'चाचा चौधरी' तथा साबू, बिन्नी, डगडग, बंदूक सिंह, राकेट, श्रीमतीजी, बिल्लू, पिंकी, रमन, डब्बू, चन्नी चाची जैसे कार्टून चरित्रों के रचनाकार प्राण ने अपने कार्टूनों से भारतीय बचपन को एक नये अंदाज में संवारा है। ऐसे में जब भारतीय साहित्य और समाज एक दूसरे से दूर जाने की जिद पकड़ने की शुरूआत-सी कर रहे थे तब राजनीति विज्ञान में एम.ए.और बंबई के अतिप्रतिष्ठित जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट से पढ़े तथा दैनिक 'मिलाप' से जुड़े रहे युवा चित्रकार प्राण ने वर्ष १९६६ के पहले दो दिनों में दिल्ली से दूर खंडवा जाकर 'एक भारतीय आत्मा' नाम से कवितायें लिखने वाले 'दादा' माखन लाल चतुर्वेदी के कुछ रेखांकन बनाए थे जो प्रकाशन विभाग की मासिक पत्रिका 'आजकल' ( हिन्दी ) के अक्टूबर १९६६ अंक में उनके एक संस्मरणात्मक आलेख के साथ प्रकाशित हुए थे . इस आलेख में प्राण एक संवेदनशील गद्य लेखक की तमाम खूबियों के साथ मौजूद हैं।
'पुष्प की अभिलाषा' शीर्षक कविता को हिन्दी की कालजयी कविताओं की श्रेणी में गिना जाता है। माखन लाल चतुर्वेदी (१८८९ - १९६८) न केवल हिन्दी की राष्ट्रीय काव्यधारा के प्रमुख कवि रहे हैं बल्कि एक पत्रकार के रूप में भी उनका कद बहुत बड़ा है।'कृष्णार्जुन युद्ध ,'हिमकिरीटनी', 'हिमतरंगिणी', 'माता', 'साहित्य देवता', 'युगचरण' 'समर्पण', 'वेणु लो गूंजे धरा', 'अमीर इरादे:गरीब इरादे' जैसी रचनाओं के इस रचनाकार ने एक समय में 'प्रभा','कर्मवीर','प्रताप'जैसे पत्रों का सफल संपादन भी किया था।
* पूर्व उल्लिखित 'आजकल' के अक्टूबर १९६६ अंक से कार्टूनिस्ट प्राण के संस्मरण के कुछ चुनिंदा अंशों के साथ 'एक भारतीय आत्मा' की जीवन संध्या के स्केच भी पूरे आदर - आभार सहित प्रस्तुत किए जा रहे हैं -
भारतीय आत्मा के साथ एक चित्रकार के दो दिन
• १ जनवरी,१९६६
भारतीय आत्मा को देखते ही सबसे पहले जो विचार मेरे मन में आया, वह यह था कि यह चेहरा बहुत सरल है, देखने में भी और चित्र बनाने के लिये भी।शायद मैंने पहले कभी इतना सरल और भावुक चेहरा स्केच नहीं किया था. हां, अंधकारमय कमरा, जिसमें श्री माखन लाल चतुर्वेदी, अर्थात मेरे माडल लेटे हुए थे, जरूर मेरे कार्य में बाधक था। बताया गया कि मेरे माडल बहुत सख्त बीमार हैं और उन्हें रोशनी अच्छी नहीं लगती। इस कारण मैं कमरे में बिजली भी नहीं जला सकता। मेरे मॉडल, जिन्हें लोग प्यार से 'दादा' कहते हैं, पिछले दो वर्षों से इतने अधिक बीमार हैं कि बैठ भी नहीं सकते।पिछले सारे मेरे माडलों से यह माडल अजीब था। उसको एक 'पोजीशन' बनाकर बैठे या खड़े रहने के लिए आर्टिस्ट नहीं कह सकता था, बल्कि लेटे हुए माडल की सुविधा का ख्याल रखकर ही उसको चित्र बनाना था। चित्र बनाने में ये रुकावटें सामने थीं. परंतु उसका भोला और सरल चेहरा देखकर कोई भी चित्रकार, इतनी रुकावटें होते हुए भी, उसका चित्र बनाने को तैयार हो जाएगा. यही मैंने भी किया।
"आपकी तबियत अब कैसी है?" मैंने अपने बीमार माडल से पूछा।
"ठी-ड़-ड़-ड़-...र-र-र..." मेरे माडल के होंठों पर कंपन हुआ और अस्पष्ट ध्वनि हुई.पास खड़े हुए उनके छोटे भाई साहब ने बताया कि वह पिछले दो वर्षों से ठीक से बोल नहीं पाते। बहुत कोशिश करने पर जब वह कुछ बोलते हैं, तो वह इतना अस्पष्ट होता है कि उसे उनका नौकर या छोटे भाई ही समझ पाते हैं। अपने मॉडल की यह हालत देखकर मेरा दिल रो उठा कि किसी जमाने में आग की लपटें बरसाने वाली क्रांतिकारी कवितायें लिखने वाला आज असहाय होकर बूढ़े शेर की तरह अंधकारमय मांद में पड़ा है।
कमरे में एक कोने में बैठकर मैंने चित्र बनाना शुरू किया. सामने मेरे माडल रजाई ओढे लेटे हुए थे.रंग कागज पर फैलने लगे. अभी कुछ ही देर हुई थी कि उन्होंने करवट बदली. मुझे एक और रुकावट दिखी. माडल को एक ही तरफ से लेटा रहने के लिए भी नहीं कहा जा सकता था. वह बीमार थे.इस कारण एक करवट लेटे रहना उनके लिए असह्य था. वह सुविधानुसार दायें-बायें करवटें बदलते रहे. कई बार उनका चेहरा छुप जाता. मैंने आंखें बंद कीं और दिमाग खोला. सोचा, यह पेंटिंग कैसी हो? इसमें कवि के भाव होने चाहिए. कौन-सी कविता? हां ठीक है, वही, जो मैंने बचपन में पढ़ी थी -'मील का पत्थर'. यह कवि भी तो सारी उम्र एक राहगीर रहा है. मैंने फिर रंगों को कागज पर फैलाना शुरू किया. माडल की तरफ देखा. बंद आंखें, साफ़ निर्मल चेहरा, निर्मल जल की तरह, जिसमें झांककर आप दिल के भाव तक देख सकते हैं, श्वेत वर्ण, पतली नाक, नुकीली ठुड्डी घनी सफेद मूंछें और रूई के समान सिर पर घने बाल. उनका जरूर जवानी में सुंदर व्यक्तित्व रहा होगा, मैंने सोचा. कुछ और चेहरे के अंदर घुसा,झुर्रियों के बीच मैंने खोजा, उनके मन में संतुष्ट भाव. मैं उनके चेहरे के हर भाग को खोजता रहा, अध्ययन करता रहा, भाव ढ़ूंढ़ता रहा. ब्रश चलते रहे ,रंग कागज पर चलते रहे , चित्र बनता रहा।
"आप चित्रकला के बारे में कुछ कहना चाहते हैं?"
"चित्र ...त्र...त्र...भ...भ...श्...श..." ( चित्रकला भावों से शुरू होती है।)
"और "...मैंने पूछा।
"भ...भ...भ...प...र...र...र..." ( और भावों पर खत्म हो जाती है )
मैं मुस्करा दिया। मेरे मॉडल ने दो वाक्यों में ही सारी चित्रकला को लपेट लिया था। मैंने चित्र पूरा कर लिया। ऊपर बायें कोने पर 'मील का पत्थर', बीच में मुख्य फिगर कवि , मेरे माडल और नीचे एक युवक, जो पूरे जोश में हाथ उठाये क्षितिज की ओर चला जा रहा है। चित्र माडल को दिखाया गया। उन्होंने जेब से चश्मा निकाला, रूमाल से उसे पोंछा और आंखों पर चढ़ाया। चित्र को गौर से देखा. उनके होंठ थोड़े चौड़े हो गए, वह मुस्कुराये.मैंने समझ लिया कि चित्र उन्हें पसंद आ गया है. स्वीकृति में उन्होंने सिर भी हिलाया। फिर उन्होंने 'मील का पत्थर' की ओर इशारा किया। मैं समझ गया कि वह ७८ के अंकों को, जो 'मील का पत्थर' पर अंकित है, पूछ रहे हैं। मैंने कहा- आपको पथिक बनाया है, 'मील का पत्थर' पर ७८ अंक लिखकर यह बताने की कोशिश की है कि आपने अपने जीवन का इतना रास्ता तय कर लिया है। यह सुनकर मेरे मॉडल फिर मुस्कुराये।
• २ जनवरी, १९६६
आज मैंने अपने मॉडल की दिनचर्या पर छोटे-छोटे ब्लैक एंड ह्वाइट स्कैच बनाने का विचार किया।
सुबह मेरे माडल दस मिनट तक अपने मकान के आगे सैर करते हैं.सुबह साढ़े नौ बजे के करीब वह काला चश्मा लगाए बाहर आए. पांवों मे मोजों पर काले जूते, खादी का पाजामा, बंद गले का कोट, गले पर मफलर, सिर पर गांधी टोपी और सिर से कानों तथा गर्दन को लपेटे हुए दोहरी अथवा चौहरी शाल थी. एक व्यक्ति उनको थामे हुए था। उन्होंने धीरे-धीरे, इंच-इंच करके एक-एक कदम आगे बढ़ाया, फिर ठहर गए। फिर धीरे-धीरे, इंच-इंच करके दूसरा कदम बढ़ाया, फिर ठहर गए। इसी प्रकार वह कठिनाई से धीरे-धीरे आगे एक कदम बढ़ाते, फिर दूसरा। उन्होंने कोई दस गज की दूरी तय की। फिर वापस उसी तरह कदम रखते वही दूरी तय की। यही दस गज की जगह मात्र उनकी सैरगाह थी. मैंने स्केच-बुक उठाई और उनके साथ, उनके आगे-आगे, उलटे पांव चलने लगा और स्केच बनाने लगा। बायें हाथ से स्केच-बुक थामे, दायें से मैं रेखाएं बनाता जाता। जब मेरे माडल मुड़ जाते तो मैं भी मुड़ जाता। एक बार जब मैं उनके आगे-आगे स्केच बनाता हुआ उल्टे पांव चल रहा था तो पीछे एक बड़ा पत्थर आ गया। मैं धड़ाम से गिर पड़ा. पास खड़े हुए बच्चे हंसने लगे। मैं कपड़े झाड़कर उठा। यह स्केच मैंने पांच मिनट में पूरा कर लिया।
"स...स...र...र..."(क्या सारे चित्र बन गए?)
"हां, काफी बन गये हैं।"
"को...ई...ई...क...क...क...?" (कोई कार्टून?)
"कार्टून सिर्फ राजनीतिज्ञों के बनाता हूं।आपका कोई कार्टून नहीं बनाऊंगा,बेफिक्र रहिए।"
कार्टूनिस्ट प्राण |
इस पर मेरे माडल खिलखिलाकर हंस पड़े। पास बैठे हुए उनके भाई ने बताया कि आज बहुत अरसे बाद वह हंसे हैं.मैंने अपने को सराहा कि उन्हें हंसा पाया हूं। मेरे माडल का मूड अच्छा देखकर एक सज्जन ने मौका हाथ से न जाने दिया।
"दादा, अब तो इनको हस्ताक्षर दे दो। "मेरे माडल ने स्वीकृति दे दी। उन्हॅं सहारा देकर बैठाया गया। फिर उनके हाथ में पेन दे दिया गया। उन्होंने अनजाने में ही जहां कलम पड़ गई, अस्पष्ट-से,टेढे-मेढे हस्ताक्षर करने शुरू कर दिये। किसी स्केच पर पूरा नाम लिखने की कोशिश की, परंतु 'माख लाल च'...तक ही लिख सके.किसी पर सिर्फ 'म.ल.च' ही अंकित कर सके।
३ जनवरी १९६६
आज सुबह मैंने अपने मॉडल के चरण छुए और उनसे विदा ली। सुबह नौ बजे खंडवा से पठानकोट एक्सप्रेस में बैठकर दिल्ली रवाना हो गया.
(साभार) कर्मनाशा में सिद्धेश्वर सिंह
लिन्क: http://karmnasha.blogspot.in/2011/04/blog-post.html